टॉप 05 आचार्य चाणक्य नीति | जीवन को बदल देने वाली आचार्य चाणक्य नीति है | AACHARYA CHANAKYA


AACHARYA CHANAKYA NITI

     सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
     त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।।

अर्थात : अपनी पत्नी, भोजन और धन-इन तीनों के प्रति मनुष्य को संतोष रखना चाहिए, परंतु विद्याध्ययन, तप और दान के प्रति कभी संतोष नहीं करना चाहिए।
चाणक्य के अनुसार, व्यक्ति को अपनी पत्नी से ही संतुष्ट रहना चाहिए, अन्य स्त्रियों से संबंध बनाना अपमानित करता है। व्यक्ति को घर में जो भोजन प्राप्त होता है और उसकी जितनी आय है उसमें ही संतोष करना चाहिए लेकिन विद्या के अध्ययन, यम-नियमों आदि के पालन और दान आदि कार्यों से कभी भी संतुष्ट नहीं होना चाहिए अर्थात व्यक्ति जितना अधिक अध्ययन करेगा, जितना अधिक अपने चरित्र को ऊंचा उठाने के लिए तप करेगा तथा दान आदि करता रहेगा, उससे मनुष्य को लाभ होगा। ये तीन चीजें ऐसी हैं, जिनसे मनुष्य को संतोष नहीं करना चाहिए। संतुष्टि कहां हो और कहां नहीं, जीवन में यह जानना भी जरूरी है।

    पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च।
    नैव गं न कुमारी च न वृद्धं न शिशुं तथा।।

अर्थात : अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुंवारी कन्या, बूढ़ा आदमी और छोटे बच्चे–इन सबको पैर से कभी नहीं छूना चाहिए।
कुछ कार्य ऐसे भी हैं, जिन्हें करने से हानि होती है और कुछ कार्य आचार-व्यवहार के विपरीत होते हैं. उन्हें करने से समाज में अपयश होता है। अग्नि को पवित्र माना जाता है। इसलिए उसे पैर से स्पर्श नहीं करना चाहिए। गुरु, ब्राह्मण और गाय को भी पूज्य होने के कारण पैर से छूना उचित नहीं। कुंवारी लड़की, बूढ़े आदमी और बच्चे भी सम्मान के पात्र होते हैं, इसलिए इन्हें भी पैर से नहीं छूना चाहिए। पूज्य को यथायोग्य सम्मान देने पर यदि आयु, विद्या, यश और बल की प्राप्ति होती है, तो अनादर करने से इनकी हानि भी तो होगी ही। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है।

     शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्।
     हस्ती शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम्।।

अर्थात : बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ दूर रहने में ही मनुष्य की भलाई है। लेकिन दुष्ट से बचने के लिए यदि स्थान विशेष का त्याग भी करना पड़े तो हिचकना नहीं चाहिए।
व्यक्ति को स्वयं इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि किसी कारणवश उसे हानि न पहुंचे। बैलगाड़ी के बिलकुल निकट चलने से कोई दुर्घटना हो सकती है। घोड़ा किसी प्रकार की हानि पहुंचा सकता है। हाथी से भी कुचले जाने का भय रहता है, इसलिए इनसे दूर रहना चाहिए। चाणक्य का मानना है कि दुष्ट व्यक्ति इन सबसे बुरा होता है। इन सबसे बचने का यदि कोई और उपाय न हो तो व्यक्ति को स्वयं वह स्थान विशेष त्याग देना चाहिए।

    अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम्।
   आत्मतुल्यबलं शत्रु विनयेन बलेन वा।।

अर्थात : बलवान शत्रु को अनुकूल तथा दुर्जन शत्रु को प्रतिकूल व्यवहार द्वारा अपने वश में करें। इसी प्रकार अपने समान बल वाले शत्र को विनम्रता या बल द्वारा, जो भी उस पर उपयुक्त हो, अपने वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए।
चाणक्य का कहना है कि समय और स्थिति के अनुसार अपने शत्रु से व्यवहार करना चाहिए। यदि शत्रु बलवान है तो विनयपूर्वक उसे जीतने का प्रयत्न करना चाहिए अथवा अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। दुष्ट शत्रु के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना चाहिए क्योंकि सज्जनतापूर्वक किए गए व्यवहार को वह कमजोरी समझेगा, इसलिए उसके साथ ऐसा व्यवहार इस प्रकार किया जाना चाहिए ताकि उसकी दुष्टता पर अंकुश लगे।

    नाऽत्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
    छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः।।

अर्थात : मनुष्य को अत्यन्त सरल और सीधा भी नहीं होना चाहिए। वन में जाकर देखो, सीधे वृक्ष काट दिए जाते हैं और टेढ़े-मेढ़े गांठों वाले वृक्ष खड़े रहते हैं।
आचार्य चाणक्य के अनुसार, मनुष्य को अत्यन्त सरल और सीधे-स्वभाव का भी नहीं होना चाहिए। इससे उसे सब लोग दुर्बल और मूर्ख मानने लगते हैं तथा हर समय कष्ट देने का प्रयत्न करते हैं। सीधा- सादा व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति के के लिए सुगम होता है जबकि टेढ़े व्यक्ति से सब बचने की कोशिश करते हैं। ऐसे में दुरुपयोग तो होगा ही।

यत्रोदकं तत्र वसन्ति हंसाः तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।
न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्ते पुनराश्रयन्ते।।

अर्थात : जहां जल रहता है, वहां हंस रहते हैं और जब जल सूख जाता है तो हंस उस स्थान को छोड़ देते हैं। मनुष्य को हंस के समान स्वार्थी नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे कभी त्याग करते हैं और कभी आश्रय लेते हैं।
मनुष्य ही नहीं देवता भी स्वार्थी हैं। जब तक कोई स्तुति करता है, संबंध रखते हैं, फिर छोड़ देते हैं। लेकिन चाणक्य इसे ठीक नहीं मानते। उनका मानना है कि सुख में ही नहीं, दुख में भी साथ नहीं छोड़ना चाहिए, यदि किसी ने समय पर आपके लिए कुछ किया है तो। ऐसा नीति की दृष्टि से भी आवश्यक है। संबंधों को तोड़ना बुद्धिमान व्यक्ति का स्वभाव या गुण नहीं है। कभी भी किसी की जरूरत पड़ सकती है। अगर संबंध ही तोड़ दिया, तो आप उसके पास फिर किस मुंह से जाएंगे।

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@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER

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