टॉप 05 आचार्य चाणक्य नीति
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाऽम्भसाम्।।
अर्थात : अर्जित अथवा कमाए हुए धन का त्याग करना अर्थात् उसका ठीक ढंग से व्यय करना, उससे सार्थक लाभ उठाना ही उसकी रक्षा है। जिस प्रकार तालाब में भरे हुए जल को निकालते रहने से ही उस तालाब का पानी शुद्ध और पवित्र रहता है।
मनुष्य द्वारा कमाए गए धन का सही उपयोग यही है कि वह उसे ठीक ढंग से काम में लाए। उसका दान करे, उसका उचित उपभोग करे, सही अर्थों में यही धन की रक्षा है। यदि धन कमाने के बाद उसका सही उपयोग नहीं किया जाएगा तो धन कमाने का लाभ ही क्या है? यह बात उसी प्रकार ठीक है जैसे यदि तालाब में भरे हुए पानी को निकाला नहीं जाएगा तो वह सड़ जाएगा। सड़ने से बचाने के लिए उसका उपयोग आवश्यक है। इसी तरह तालाब की रक्षा हो सकती है। धन की रक्षा का भी उपाय यह है कि उसका सदुपयोग किया जाए।
यस्याऽस्तिस्य मित्राणि यस्याऽस्तिस्य बान्धवाः।
यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोके यस्याऽर्थाः स च जीवति।।
अर्थात : संसार में जिसके पास धन है उसी के सब मित्र होते हैं, उसी के सब भाई-बन्धु और स्वजन होते हैं। धनवान व्यक्ति को ही श्रेष्ठ व्यक्ति माना जाता है। इस प्रकार वह आदरपूर्वक अपना जीवन बिताता है।
आचार्य ने धन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यहां स्पष्ट किया है कि मनुष्य के पास जब तक धन रहता है, तब तक सब उसके मित्र बने रहते हैं। जिसके पास धन होता है, उसके रिश्तेदार भी बहुत होते हैं। धनवान व्यक्ति को ही संसार में श्रेष्ठ माना जाता है और धनवान व्यक्ति का ही जीवन धन्य कहलाने योग्य है। निर्धन व्यक्ति तो निर्जीव के समान है क्योंकि न तो उसकी ओर कोई ध्यान देता है, न ही कोई उसका अपना होता है।
धन में ऐसी शक्ति है कि यह जानते हुए भी कि यह आने-जाने वाला है सब लोग धनवान व्यक्ति को ही अपना मित्र और पारिवारिकजन बनाना उचित समझते हैं, उसे ही श्रेष्ठ व्यक्ति माना जाता है।
स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि चिनानि वसन्ति देहे। दानप्रसंगो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।
अर्थात : स्वर्ग से इस संसार में आने वाले जीव के शरीर में चार बातें उसके चिह्न रूप में रहती हैं अर्थात उसके चार प्रमुख गुण होते हैं। उसमें दान देने की प्रवृत्ति होती है। वह मधुरभाषी होता है। देवताओं की पूजा-अर्चना करता है, उनका आदर-सत्कार करता है और विद्वानब्राह्मणों को सदैव तृप्त अर्थात् संतुष्ट रखता है।
आचार्य चाणक्य के अनसार, जिन व्यक्तियों में ये चार गुण होते हैं। वे मानो पथ्वी पर उतरे हुए देवता ही हैं। वाणी में मिठास, प्रेमपूर्वक बिना अभिमान के बात करना, दान देने की प्रवृत्ति, देवताओं का आदर-सत्कार और उनकी पूजा-अर्चना करना तथा ब्राह्मणों को पूजा तथा आदर-सम्मान द्वारा तृप्त करने का प्रयत्न करना ही तो देवताओं के लक्षण हैं। इसे धर्मग्रंथों में दैवी संपत्ति कहते हैं।
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीचप्रसंग: कुलहीनसेवा चिनानि देहे नरकस्थितानाम्।।
अर्थात : (इसी प्रकार) नरक में रहने वाले जब देह धारण कर इस संसार में आते हैं तो उनमें ऊपर बताए गए चिह्नों के सर्वथा विपरीत चिह्न होते हैं। वे मधुरभाषी होने के बजाय अत्यंत क्रोधी स्वभाव के होते हैं। कड़वी बात कहते हैं। वे निर्धन होते हैं। अपने परिवारजनों तथा मित्रों से वे द्वेष-भाव रखते हैं। उनकी संगति में नीच लोग रहते हैं और वे नीच कुल वालों की सेवा करते हैं।
यह श्लोक पूर्व श्लोक के भाव से संबंधित है। दुष्ट लोग अत्यन्त क्रोधी स्वभाव के होते हैं। मधुर भाषण करने के बजाय कठोर और कड़वी बातें बोलते हैं। वे दरिद्र होते हैं अर्थात उनके पास धन नहीं होता। जिस प्रकार कुत्ता दूसरे अपरिचित कुत्ते को देखकर उस पर भौंकता है, उसी प्रकार दुष्ट अपनों से भी वैर-भाव रखने लगता है। उसके संगी-साथी नीच होते हैं और वह नीच लोगों की ही सेवा करता है। ऐसे लोग नरक से आते हैं और जहां रहते हैं वहां भी नरक ही बना देते हैं।
शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना।
न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे।।
अर्थात : विद्या के बिना मनुष्य का जीवन कुत्ते की उस पूंछ के समान है, जिससे न तो वह अपने शरीर के गुप्त भागों को ढक सकता है और न ही काटने वाले मच्छरों आदि को उड़ा सकता है।
वाचः शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूते दया शौचं एतच्छौत्रं पराऽर्थिनाम्।।
अर्थात : वाणी की पवित्रता, मन की शुद्धि, इंद्रियों का संयम, प्राणिमात्र पर दया, धन की पवित्रता, मोक्ष प्राप्त करने वाले के लक्षण होते हैं।
नीति ग्रंथों में अध्यात्म से संबंधित श्लोकों का आना कुछ पाठकों को खटक सकता है। उन्हें ऐसा लगेगा मानो आचार्य अपने लक्ष्य से भटक गए हैं। लेकिन ऐसा समझना आचार्य चाणक्य के व्यक्तित्व को न समझ पाना है। अपनी कूटनीतिक चालों से शत्रु को मात देने वाले आचार्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में इसीलिए सफल हुए क्योंकि वे अपने अंतरमन से उतने सरल और सहज थे। महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए लघु स्वार्थों को छोड़ने की उन्होंने शिक्षा ही नहीं दी, उन्हें अपने आचरण में भी विशिष्ट स्थान दिया। अध्यात्म उनके जीवन का आधार था। बंधन तो लीला मात्र है, असल में तो उनके सारे प्रयास मुक्ति के लिए ही थे।
उन्होंने इन श्लोकों द्वारा बताया कि भगवत्ता और दिव्यता कहीं अन्यत्र नहीं हैं। प्रत्येक में वह रची-बसी है। जरूरत है उसका अनुभव करने की। आचार्य ने उस अनुभव के लिए शुचिता (पवित्रता) को सबसे आवश्यक माना है। जो वाणी और मन से पवित्र होगा और जो दूसरों को दुखी देखकर दुखी होता होगा वही विवेकवान् हो सकता है। परोपकार की भावना हो, लेकिन इंद्रियों पर संयम न हो, तो भी अपने लक्ष्य को पाया नहीं जा सकता। एक स्थिति प्राप्त करने के बाद मार्ग से भटकने का भय बना रहता है। संयमी तो वहां स्वयं को संभाल लेता है, जहां इंद्रिय लोलुप उलझ जाता है। बिना विवेक के सत्य का ज्ञान नहीं होता और उसके बिना बंधनमुक्त भी नहीं हुआ जा सकता।
पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याऽऽत्मानं विवेकतः।।
अर्थात : जैसे फूल में सुगंध होती है, तिलों में तेल होता है, सूखी लकड़ी में अग्नि होती है, दूध में घी और ईख में गुड़ तथा मिठास होती है, वैसे ही शरीर में आत्मा और परमात्मा विद्यमान है। बुद्धिमान मनुष्य को विवेक का सहारा लेकर आत्मा और परमात्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
आचार्य ने साधन और साध्य दोनों का स्पष्ट कथन किया है यहां।
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@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER