अध्याय 08 | TOP 10 Aacharya Chanakya niti | आचार्य चाणक्य नीति


TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI

वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नान्यत्र देहि क्वचित् प्राप्तं वारिनिधेर्जलं घनमुखे माधुर्ययुक्तं सदा। जीवान्स्थावरजंगमांश्च सकलान् संजीव्य भूमण्डलम्
भूयः पश्य तदेव कोटिगुणितं गच्छन्तमम्भोनिधिम्।।

अर्थात : बुद्धिमान या अच्छे गुणों से युक्त मनुष्य को ही धन दो, गुणहीनों को धन मत दो। समुद्र का खारा पानी बादल के मीठे पानी से मिलकर मीठा हो जाता है और इस संसार में रहने वाले सभी जड़-चेतन, चर और अचर जीवों को जीवन देकर फिर समुद्र में मिल जाता है।
चाणक्य ने बुद्धिमान व्यक्ति को धन देने की उपमा वर्षा के जल से की है अर्थात जिस प्रकार वर्षा का जल जड़-चेतन आदि को जीवन देने के बाद फिर समुद्र में जा मिलता है और फिर समुद्र से करोड़ गुना अधिक बादलों को पुनः प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार गुणी व्यक्ति को दिया हुआ धन अनेक अच्छे कार्यों में प्रयुक्त होता है। यह श्लोक यह भी संकेत करता है कि यद्यपि धन अनेक दुर्गुणों से युक्त है, फिर भी गुणी व्यक्ति का साथ पाकर वह निर्दोष हो जाता है-जनोपयोगी हो जाता है।

तैलाऽभ्यंगे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि।
तावद्भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न चाऽऽचरेत्।।

अर्थात : तेल की मालिश करने के बाद, चिता के धुएं के स्पर्श करने के बाद, स्त्री से संभोग करने के बाद और हजामत आदि करवाने के बाद मनुष्य जब तक स्नान नहीं कर लेता, तब तक वह चाण्डाल अर्थात् अशुद्ध होता है।

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम्।।

अर्थात : अपच की स्थिति में जल पीना औषधि का काम देता है और भोजन के पच जाने पर जल पीने से शरीर का बल बढ़ता है, भोजन के बीच में जल पीना अमृत के समान है, परंतु भोजन के अंत में जल का सेवन विष के समान हानिकारक होता है।

नाग्निहोत्रं विना वेदा न च दानं विना क्रिया।
न भावेन विना सिद्धिस्तस्माद्भावो हि कारणम्।।

अर्थात : अग्निहोत्र आदि कर्मों के बिना वेदों का अध्ययन व्यर्थ है तथा दान-दक्षिणा के बिना यज्ञ आदि कर्म निष्फल होते हैं। श्रद्धा और भक्ति के बिना किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती अर्थात मनुष्य की भावना ही उसके विचार, उसकी सब सिद्धियों और सफलता का कारण मानी गई है।

काष्ठपाषाणधातूनां कृत्वा भावेन सेवनम्।
श्रद्धया च तया सिद्धस्तस्यः विष्णुः प्रसीदति।।

अर्थात : लकड़ी, पत्थर अथवा धातु की मूर्ति में प्रभु की भावना और श्रद्धा रखकर उसकी पूजा की जाएगी, तो सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। प्रभु इस भक्त पर अवश्य प्रसन्न होते हैं।
लकड़ी, पत्थर अथवा धातु की मूर्तियों से व्यक्ति को सिद्धि प्राप्त नहीं होती, सिद्धि प्राप्त होती है तपस्या और भावना से अर्थात मनुष्य उनके प्रति जैसी भावना रखता है और श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, व्यक्ति को वैसी सिद्धि ही प्राप्ति होती है। उसी भक्त पर विष्णु तथा परमेश्वर प्रसन्न होते हैं। 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' अर्थात् पूजा में भावना ही प्रधान है जैसी भावना, वैसा फल।

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम्।।

अर्थात : क्रोध यमराज के समान है। तृष्णा वैतरणी है। विद्या कामधेनु है और संतोष नंदन वन अर्थात इंद्र के उद्यान के समान है।
क्रोध यमराज के समान मृत्युदाता है। मनुष्य की इच्छाएं वैतरणी नदी के समान हैं जिनका पार नहीं पाया जा सकता। विद्या को सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु बताया गया है, अतः विद्वान सरलतापूर्वक धन और मान-सम्मान दोनों को अर्जित कर सकता है। मनुष्य के जीवन में संतोष को इंद्र की वाटिका के समान अत्यन्त सुख देने वाला माना गया है। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि जीवन में सुखी रहने के लिए विद्या का संग्रह करे और अपना समय संतोष के साथ बिताए।

निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम्।
असिद्धस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम्।।

अर्थात : गुणहीन मनुष्यों का सुंदर अथवा रूपवान होना व्यर्थ होता है। जिस व्यक्ति का आचरण शील से युक्त नहीं, उसकी कुल में निंदा होती है। जिस व्यक्ति में किसी कार्य को सिद्ध करने की शक्ति नहीं, ऐसे बुद्धिहीन व्यक्ति की विद्या व्यर्थ है और जिस धन का उपभोग नहीं किया जाता, वह धन भी व्यर्थ है।

असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः।
सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलांगना।।

अर्थात : संतोषरहित ब्राह्मण, संतुष्ट होने वाला राजा, शर्म करने वाली वेश्या और लज्जाहीन कुलीन स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं।
असंतुष्ट रहने वाला ब्राह्मण अपने कर्म से भ्रष्ट हो जाता है। वह अपना कर्तव्य भूल जाता है। समाज में उसकी प्रतिष्ठा क्षीण होती है। इसी प्रकार जो राजा अपनी थोड़ी-सी सफलता से संतोष कर लेता है, उसमें महत्वाकांक्षाएं कम हो जाती हैं, वह अपना राज्य का विस्तार न करने के कारण शक्तिहीन होकर नष्ट हो जाता है। वेश्याओं का कार्य लोगों को संतुष्ट करना है। वह बाजार में बैठकर भी यदि संकोच और लज्जा करती रहेगी तो वह भूखी मर जाएगी। इसी प्रकार यदि अच्छे घर की औरतें लज्जा को त्याग देती हैं तो वे भी नष्ट हो जाती हैं। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कोई एक कार्य किसी के लिए हितकर है, तो किसी को हानि पहुंचाने वाला होता है। कर्तव्य का निर्णय संदर्भ के अनुसार होता है। उसकी कोई निश्चित गाइडलाइन नहीं है।

विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् गच्छति गौरवम्।
विद्यया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते।।

अर्थात : इस संसार में विद्वान की प्रशंसा होती है। विद्वान को ही आदर- सम्मान और धनधान्य की प्राप्ति होती है। प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति विद्या द्वारा ही होती है और विद्या की सब जगह पूजा होती है।

वृद्धकाले मृता भार्या बंधुहस्ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं तिस्त्रः पुंसां विडम्बना।।

अर्थात : वृद्धावस्था में पत्नी का देहान्त हो जाना, धन अथवा संपत्ति का भाई-बन्धुओं के हाथ में चले जाना और भोजन के लिए दूसरों पर आश्रित रहना, यह तीनों बातें मनुष्य के लिए मृत्यु समान दुखदायी हैं।
दुख जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन वृद्धावस्था में यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी को खो दे, तो वह दारुण स्थिति है। जीवन साथी की जीवन में दो भूमिकाएं हैं – भोग और सहयोग। वृद्धावस्था में एक-दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है। परंपरा के अनुसार पति अकसर पत्नी से 5-7 वर्ष बड़ा होता था। वृद्धावस्था में इस अंतर का अत्यंत महत्व है। जब पूरे परिवार की अपनी दुनिया हो, वृद्ध एक तरह से निरर्थक हो चुके हों, बूढ़े दंपति ही एक-दूसरे के लिए सार्थक हों, ऐसे में एक का, विशेषकर पत्नी का, चले जाना पति के लिए मृत्यु के समान है। आचार्य ने एक महत्वपूर्ण समस्या की ओर मानो इस श्लोकांश से संकेत किया है। पुरुष के बिना स्त्री अपना समय काट लेती है। सोचिए, पराधीन कौन है?

मेरे प्रिय पाठक गण, यह लघु लेख आपको थोड़ी सी भी प्रभावित की है तो इस लघु लेख को अपने सगे संबंधियों के साथ शेयर जरूर करें। और हां इस लघु लेख से आपको क्या सीख मिली है अपना प्रतिक्रिया कमेंट बॉक्स में जरूर दीजिएगा। धन्यवाद

@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER


Post a Comment

Previous Post Next Post