TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज।
क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवद् भज।।
अर्थात् : यदि तू मुक्ति चाहता है तो बुरे व्यसनों और बुरी आदतों को विष के समान समझकर उनका त्याग कर दे तथा क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान ग्रहण कर।
आचार्य चाणक्य ने मुक्ति चाहने वालों को सलाह दी है कि विषयों को वे विष के समान छोड़ दें क्योंकि जिस तरह विष जीवन को समाप्त कर देता है, उसी तरह विषय भी प्राणी को 'भोग' के रूप में नष्ट करते रहते हैं। यहां विषय शब्द का अर्थ वस्तु नहीं बल्कि उसमें आसक्ति का होना है। इस प्रकार आचार्य की दृष्टि में विषयासक्ति ही मृत्यु है। जो लोग जिस अमृत की तलाश स्वर्ग में करते हैं, उसे आचार्य ने इन पांच गुणों में बताया है। इस श्लोक का उल्लेख 'अष्टावक्र गीता' में भी इसी रूप में जनक अष्टावक्र संवाद के रूप में हुआ है। यहां चेत् अर्थात् यदि शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि यदि कोई मुक्त होने का संकल्प कर चुका है। वैसे प्रायः हम बंधन में आनंदित होते रहते हैं, बंधन में सुरक्षा महसूस करते हैं।
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः।
त एवं विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्।।
अर्थात् : जो लोग एक-दूसरे के भेदों को प्रकट करते हैं, वे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे बांबी में फंसकर सांप नष्ट हो जाता है।
अपमानित करने के विचार से अपने मित्रों के रहस्यों को प्रकट करने वाले उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार बांबी में घुसा हुआ सांप बाहर नहीं निकल पाता और बांबी के अंदर ही दम घुटने से मर जाता है। ऐसे लोग न घर के रहते हैं, न घाट के।
विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधाऽऽर्तो भयकातरः।
भाण्डारी प्रतिहारी च सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत्।।
अर्थात् : विद्यार्थी, सेवक, मार्ग में चलने वाला पथिक, यात्री, भूख से पीड़ित, डरा हुआ व्यक्ति और भण्डार की रक्षा करने वाला द्वारपाल यदि अपने कार्यकाल में सो रहे हों, तो इन्हें जगा देना चाहिए।
यदि विद्यार्थी सोता रहेगा तो विद्या का अभ्यास कैसे करेगा। मालिक यदि सेवक को सोता देख लेगा तो उसे नौकरी से पृथक कर देगा। यदि यात्री रास्ते में सो जाएगा तो या तो उसकी चोरी हो जाएगी अथवा उसकी हत्या कर दी जाएगी। स्वप्न में यदि कोई प्यास या भूख से व्याकुल है, तो उसे जगाना ही उसकी समस्या का समाधान है। यही बात स्वप्न में डरे हुए व्यक्ति पर भी लागू होती है।
भण्डार के रक्षक तथा द्वारपाल सो रहे हों तो इन्हें जगा देना ठीक रहता है, क्योंकि इनके सोने से इनकी ही नहीं अनेक लोगों की हानि होती है। आचार्य के इस कथन को शास्त्र के उन आदेशों से जोड़कर देखना चाहिए, जिनमें यह कहा गया है कि सोते हुए व्यक्ति को उठाना नहीं चाहिए। निंद्रा शारीरिक और मानसिक विश्राम की वह अवस्था है जो प्राणी को संतुलन की समुचित व्यवस्था देती है।
इसी संदर्भ में पशु और वृक्षों को सोते हुए से न जगाने और रात्रि के समय स्पर्श न करने का निर्देश किया गया है।
अहिं नृपं च शार्दूलं किटिं च बालकं तथा।
परश्वानं च मूर्ख च सप्त सुप्तान् न बोधयेत्।।
अर्थात् : सांप, राजा, बाघ, सूअर, बालक, दूसरे के कुत्ते और मूर्ख व्यक्ति को सोते में जगाना नहीं चाहिए।
यदि सोए हुए सांप को जगाएंगे तो वह काट खाएगा, इसी प्रकार सोते हुए राजा को जगाने पर वह क्रोधित होकर हत्या का आदेश दे सकता है। बाघ आदि हिंसक पशुओं को जगाने का क्या परिणाम हो सकता है, यह सब जानते हैं। सोते हुए बालक को जगाएंगे तो वह भी मुसीबत खड़ी कर देगा। इसी प्रकार दूसरे व्यक्ति के कुत्ते और मूर्ख मनुष्य को जगाना नहीं चाहिए। उनके सोते रहने में ही भला है।
यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनाऽऽगमः।
निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।।
अर्थात् : जिसके नाराज होने पर किसी प्रकार का डर नहीं होता और जिसके प्रसन्न होने पर धन प्राप्ति की आशा नहीं होती। जो न दण्ड दे सकता है और न ही किसी प्रकार की प्रकट कर सकता है उसके नाराज होने पर किसी का कुछ नहीं बिगड़ता।
प्रात तप्रसंगेन मध्याहूने स्त्रीप्रसंगतः।
रात्रौ चौर्यप्रसंगेन कालो गच्छत्यधीमताम्।।
अर्थात् : मूर्ख लोग अपना प्रातःकाल का समय जुआ खेलने में, दोपहर का समय स्त्री प्रसंग में और रात्रि का समय चोरी आदि में व्यर्थ करते हैं।
चाणक्य द्वारा प्रयुक्त मूर्ख और व्यर्थ शब्द यहां महत्वपूर्ण हैं। ब्रह्म मुहूर्त के बारे में ऐसा कहकर आचार्य ने संकेत किया है कि विद्वान अपना समय सद्कार्यों में व्यतीत करते हैं।
स्वहस्तग्रथिता माला स्वहस्तघृष्टचन्दनम्।
स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।
अर्थात् : अपने ही हाथ से गुंथी हुई माला, अपने हाथ से घिसा हुआ चंदन और अपने ही हाथ से लिखी हुई भगवान की स्तुति करने से मनुष्य इंद्र की धन-सम्पत्ति को भी वश में कर सकता है।
चाणक्य का भाव यह है कि धनवान व्यक्ति को भगवान की स्तुति करने के लिए किए जाने वाले उपायों को स्वयं अपने हाथ से करना चाहिए। दूसरों से करवाने से कोई लाभ नहीं होता।
इक्षुदण्डास्तिलाः क्षुद्राः कान्ता हेम च मेदिनी।
चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवर्धनम्।।
अर्थात् : ईख, तिल, मूर्ख, छोटे आदमी, स्त्री, सोना, भूमि, चंदन और दही तथा पान इन्हें जितना मला जाएगा उतने ही इनके गुण बढ़ेंगे।
ईख और तिल आदि को जितना अधिक दबाएंगे उतना ही अधिक तेल और रस निकलेगा। सोने को भी जितना तपाया अथवा शुद्ध किया जाएगा, उसमें चमक और निखार आएगा। भूमि में जितना अधिक हल चलाया जाएगा उतना ही अधिक उससे अन्न की उत्पत्ति होगी। इसी प्रकार चंदन और दही आदि को जितना रगड़ेंगे और मथेंगे उतना ही उनके गुण में वृद्धि होती है। इसी प्रकार मूर्ख के मस्तिष्क पर भी जब जोर पड़ेगा तभी वह कुछ गुणों को ग्रहण कर सकेगा। यह बात उन जातियों और राष्ट्रों पर भी लागू होती है जो प्रमाद में डूबी हुई हैं तथा निकम्मी हो गई हैं। जिन्होंने संघर्ष किया, वो उन्नत और विकसित हैं।
दरिद्रता धीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते।।
अर्थात् : दरिद्र अवस्था में यदि व्यक्ति धैर्य नहीं छोड़ता, तो निर्धनता कष्ट नहीं देती। साधारण यदि साफ रखा जाए तो वह भी अच्छा लगता है। यदि सामान्य भोजन, जिसे पुष्टिकारक न माना जाए, तो भी ताजा और गर्म-गर्म खाया जाए तो अच्छा लगता है। इसी प्रकार सुशीलता आदि गुणों के होने पर कुरूपता बुरी नहीं लगती।
आचार्य के अनुसार व्यक्ति में यदि गुण हैं तो उसके दोषों की ओर कोई ध्यान नहीं देता। वस्त्र भले ही सस्ता हो, लेकिन स्वच्छ होना चाहिए। भोजन भले ही साधारण हो, किन्तु उचित ढंग से उसे यदि पकाया और परोसा जाए तो वह भी रुचिकर लगता है। अर्थ यह है कि व्यक्ति में गुणों की प्रधानता होनी चाहिए, दिखावे की नहीं।
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@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER