TOP 05 AACHARYA CHANAKYA NITI
पुस्तकप्रत्ययाधीतं नाधीतं गुरुसन्निधौ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रियः।।
अर्थात : जिन व्यक्तियों ने गरु के पास बैठकर विद्या का अध्ययन नहीं किया वरन पुस्तकों से ही ज्ञान प्राप्त किया है, वह विद्वान लोगों की सभा में उसी तरह सम्मान प्राप्त नहीं करते, जिस प्रकार दुष्कर्म से गर्भ धारण करने वाली स्त्री का समाज में सम्मान नहीं होता।
इस श्लोक का भाव यह है कि गुरु के पास बैठकर ही सही अर्थों में विद्या का अध्ययन किया जा सकता है। गुरु से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने प्रयत्न से जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कई प्रकार से अधूरा रहता है, इसीलिए ऐसा व्यक्ति विद्वानों की सभा में उपहास का पात्र होता है जिसने गुरुमुख से विद्या प्राप्त नहीं की है।
गुरु से विद्या प्राप्त करने का महत्व इसलिए है कि गुरु ग्रहण करने योग्य सब बातें शिष्य पर प्रकट कर देता है। ज्ञान के सब रहस्य उसके समक्ष खुल जाते हैं। अपने प्रयत्न से विद्या प्राप्त करने पर कुछ न कुछ अनजाना रह ही जाता है। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, इसकी जानकारी भी गुरुमुख से ही प्राप्त होती है। तभी तो व्यक्ति प्रत्येक स्थिति का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार कर पाता है।
इस श्लोक से चाणक्य का भाव गुरु के महत्व को प्रकट करना है।
कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिंसनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत्।।
अर्थात : जो जैसा करे, उससे वैसा बरतें। कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता भरा, हिंसक (दुष्ट) के साथ हिंसायुक्त और दुष्ट से दुष्टताभरा व्यवहार करने में किसी प्रकार का पाप (पातक) नहीं है।
यदूरं यदुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम्।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्।।
अर्थात : जो वस्तु अत्यंत दूर है, जिसकी आराधना करना अत्यंत कठिन है और जो अत्यंत ऊंचे स्थान पर स्थित है, ऐसी चीजों को तप द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। सिद्धि का प्रयोग यह प्राप्त करना भी है।
जो चीज जितनी दूर दिखाई देती है, ऐसा प्रतीत होता है कि उसको पाना असंभव है, उसे भी प्रयत्नरूपी तपस्या द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। तप अथवा परिश्रम द्वारा असंभव कार्यों को भी संभव बनाया जा सकता है। तप से ही मनुष्यों को अनेक सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं।
नाऽन्नोदकसमं दानं न तिथिर्धादशी समा।
न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुः पर दैवतम्।।
अर्थात : अन्न और जल के समान कोई श्रेष्ठ दान नहीं, द्वादशी के समान कोई श्रेष्ठ तिथि नहीं, गायत्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं और माता से बढ़कर कोई देवता नहीं।
चाणक्य का कहना है कि भूखे व्यक्ति को भोजन और प्यासे को जल पिलाने के समान श्रेष्ठ दान कोई नहीं। उनका विचार है कि द्वादशी को किया हुआ पुण्य कर्म अधिक फल देने वाला होता है। गायत्री को सर्वश्रेष्ठ मंत्र माना गया है। गायत्री को सिद्ध कर लेने पर व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इसी प्रकार सबसे बढ़कर माता सम्मान की पात्र है। उसका स्थान देवताओं से भी ऊंचा है, क्योंकि वह मनुष्य को जन्म देने वाली है। माता ही संतान को प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से संस्कारित करती है। संस्कार ही मनुष्य के जीवन का आधार है।
परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम्।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे।।
अर्थात : जिन सज्जन लोगों के दिल में दूसरों का उपकार करने की भावना जाग्रत रहती है, उनकी विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं और पग-पग पर उन्हें धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है।
राजा वेश्या यमो ह्यग्निस्तस्करो बालयाचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकः।।
अर्थात : राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक, याचक और ग्रामीणों को सताने वाले ये आठों बड़े ही कठोर होते हैं। ये दूसरों के कष्टों को नहीं समझते। संकेत है कि इनसे बचकर रहें।
अधः पश्यसि किं वृद्धे पतितं तव किं भुवि।
रे रे मूर्ख न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम्।।
अर्थात : किसी अत्यंत बूढी स्त्री को, जिसकी कमर बुढ़ापे के कारण झुक गई थी, देखकर कोई युवक व्यंग्य करते हुए पूछने लगा-हे वृद्धे! नीचे क्या ढूंढ़ रही हो? क्या पृथ्वी पर तम्हारी कोई चीज गिरी पडी है? तम्हारा कुछ खो तो नहीं गया? उस व्यंग्य को सुनकर बुढी औरत ने कहा कि अरे मूर्ख! तू नहीं जानता कि मेरा यौवनरूपी मोती खो गया है। मैं उसी को ढूंढ़ रही हूं।
वृद्धा का संकेत है कि इस संसार में जिसने जन्म लिया है, वह बचपन, किशोर और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था को प्राप्त होता है, इससे कोई भी नहीं बच सकता। तू भी यहां पहुंचेगा। इसलिए मुझ पर न हंस! जिसका सामना करना हो, उस पर क्यों हंसना? ।
यह श्लोक वृद्धों की उपेक्षा की ओर भी ध्यान दिलाता है। हर पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी का मजाक ही उड़ाती है। एक विचारक ने सही कहा है कि वृक्ष की शाखाएं, पत्ते और फूल यह भूल जाते हैं कि उन्हें जीवन उन जड़ों से मिल रहा है, जो कुरूप, परोक्ष और निष्क्रिय हैं।
व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकाऽपि वक्राऽपि पंकिल-भवाऽपि दुरासदाऽपि।
गन्धेन बंधुरसि केतकि सर्वजन्तोर् एको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।
अर्थात : हे केतकी! तुझसे सांप लिपटे रहते हैं, फल भी नहीं लगते, कांटे भी हैं और वक्रता भी है। इसके अतिरिक्त तेरा जन्म कीचड़ में होता है और तू सरलता से प्राप्त भी नहीं होती। इतना सब कुछ होने पर भी तेरे में जो गंध है, वह सब प्राणियों को मोह लेती है।
आचार्य के अनुसार, व्यक्ति में यदि एक भी श्रेष्ठ गुण हो तो उसमें सारे दोष सहज ही छुप जाते हैं।
@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER