अध्याय 16 | TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI | आचार्य चाणक्य नीति


TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI

न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः। नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिंगितं मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम्।।

अर्थात : जिस मनुष्य ने संसाररूपी जाल को काटने के लिए प्रभु के स्वरूप का ध्यान नहीं किया, जिसने स्वर्ग के द्वार खोलने के लिए धर्मरूपी धन का संग्रह नहीं किया, जिसने स्वप्न में भी नारी के सुंदर स्तनों और जंघाओं का आलिंगन नहीं किया, वह माता के यौवनरूपी वृक्ष को काटने वाले कुल्हाड़े का काम करता है।

चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने न तो प्रभु का ध्यान किया, न ही कोई धर्म-कर्म किया और न ही सहवास का सुख प्राप्त किया, ऐसे व्यक्ति का जीवन एक प्रकार से निरर्थक है। इस श्लोक के द्वारा आचार्य ने उन तीन जीवन धाराओं को बताने का प्रयास किया, जिनमें जन-सामान्य उलझा हुआ है। धर्म, अर्थ, काम-इन तीनों पुरुषार्थों के लिए ही तो प्रयास किया जा रहा है। आचार्य ने इस स्मरण को प्रथम स्थान दिया है।

न निर्मितः केन न दृष्टपूर्वः न श्रूयते हेममयः कुरंगः। तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।।

अर्थात : आज तक न तो सोने के मृग की रचना हुई है और न ही किसी ने सोने का मृग देखा है, फिर भी श्रीरामचन्द्र स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए उतावले हो गए। यह बात ठीक ही है कि जब मनुष्य के बुरे दिन आते हैं, तो उसकी बुद्धि उल्टी बातें सोचने लगती है।

गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदः।
पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो निष्कलंको यथा कृशः।।

अर्थात : सभी स्थानों पर मनुष्य का आदर-सत्कार उसके गुणों के कारण ही होता है। गुणहीन मनुष्य के पास यदि धन के भण्डार भी हों तो भी उसका सम्मान नहीं होता। बहुत थोड़े से प्रकाश वाला, परंतु दाग-धब्बों से रहित दूज का चांद जिस प्रकार पूजा जाता है अथवा शुभ समझा जाता है, पूर्णिमा के चंद्रमा को वैसा सम्मान प्राप्त नहीं होता।

इसका भाव यह है कि मनुष्य का आदर-सत्कार उसके गुणों के कारण होता है। पूर्णिमा के चांद में अनेक दाग-धब्बे दिखाई देते हैं, परंतु दूज का चांद एक पतली-सी लकीर के समान होता है, उसमें कोई दाग-धब्बा नहीं होता, इसलिए वह पूरे चांद की अपेक्षा अधिक सुंदर दिखाई देता है। भगवान शिव ने इसीलिए तो उसे अपने शिरोभाग में स्थान दिया है।

गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्घ्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते।।

अर्थात : गुणों में सर्वज्ञ-परमात्मा के समान होने पर भी निराश्रित व्यक्ति दुखी होता रहता है, जैसे अत्यन्त मूल्यवान हीरा भी सोने में जड़े जाने की आशा करता है, उसी प्रकार गुणी मनुष्यों को भी किसी सहारे की अपेक्षा रहती है अर्थात गुणी व्यक्ति भी आश्रय के बिना समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता, जिसकी उसको अपेक्षा होती है।

किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला।
या तु वेश्येव सा मान्या पथिकैरपि भुज्यते।।

अर्थात : ऐसे धन का भी कोई लाभ नहीं, जो कुलवधू के समान केवल एक ही मनुष्य के लिए उपभोग की वस्तु हो। धन-संपत्ति तो वही श्रेष्ठ है, जिसका लाभ राह चलते लोग भी उठाते हैं अर्थात धन-संपत्ति वही श्रेष्ठ है, जो वेश्या के समान अन्य लोगों के भी काम आती है।

इस श्लोक का भाव है कि उत्तम धन वही है, जो परोपकार के काम में लगाया जाता है, जिस धन को कोई एक व्यक्ति समेटकर बैठ जाता है, न तो उसे उपयोगी माना जाता है और न ही उससे किसी का लाभ होता है, समाज कल्याण के उपयोग में लाया गया धन ही श्रेष्ठ धन है। धन की गति रुकनी नहीं चाहिए।

धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु।
अतृप्ताः प्राणिन: सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च।।

अर्थात : इस संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो धन का विभिन्न प्रकार से उपभोग करने पर तृप्त हुआ हो। इस धन का उपभोग इस जीवन के कार्यों, स्त्रियों के सेवन और विभिन्न प्रकार के भोजन आदि पर करने से भी मनुष्य अतृप्त रहेगा और अतृप्त रहते हुए ही इस संसार से चला जाएगा अर्थात धन को किसी भी प्रकार से उपभोग में लाया जाए, मनुष्य तृप्त नहीं होता।

सामान्य धारणा से विपरीत यह श्लोक सत्य की ओर संकेत करता है। धन से संतुष्टि मिलेगी, ऐसा माना जाता है, लेकिन आचार्य चाणक्य का कथन है कि यह सत्य नहीं है चाहो तो देख लो। हां, यदि धन संतुष्टि देगा तो केवल परोपकार में लगकर। ऐसा धन मनुष्य को संतोष और तृप्ति दोनों प्रदान करता है।

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रियाः।
नक्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम्।।

अर्थात : सभी प्रकार के अन्न, जल, वस्त्र, भूमिदान आदि, सभी प्रकार के ब्रह्म यज्ञ, देव-यज्ञ और बलि यज्ञ आदि सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात यह सभी वस्तुएं नष्ट होने वाली हैं, परंतु सुपात्र व्यक्ति को दिया हुआ दान और प्राणिमात्र को दिया गया अभयदान कभी भी नष्ट नहीं होता।

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।

अर्थात : मधुर बोली वाले से सभी प्राणी प्रसन्न रहते हैं, अतः व्यक्ति को सदैव प्रिय वचन ही बोलने चाहिए, उसे चाहिए कि वह वाणी में अमृतरूपी मधुरता घोलकर बोले। व्यक्ति को वाणी से दरिद्र नहीं होना चाहिए।

मधुर-भाषण के लिए कहा गया है कि जो व्यक्ति मीठी बातें बोलता है, प्रेमपूर्वक व्यवहार करता है, वह सबको अपना बना लेता है अर्थात मनुष्यों को मधुर भाषण करने में बिलकुल भी कंजूसी नहीं दिखानी चाहिए।

जन्म-जन्मन्यभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः।
तेनैवाऽभ्यासयोगेन तदेवाभ्यस्यते पुनः।।

अर्थात : अनेक जन्मों में मनुष्य ने दान, अध्ययन और तप आदि जिन बातों का अभ्यास किया, उसी अभ्यास के कारण वह बार-बार उन्हें दोहराया करता है।

इस श्लोक का भाव यह है कि मनष्य को अपना भावी जीवन सुधारने के लिए इस जन्म में अच्छे कार्य करने का अभ्यास करना चाहिए। पहले के अभ्यास का ही परिणाम है हमारा आज और भविष्य में जो हम होंगे वह होगा आज के अभ्यास का प्रतिफल।

पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु यद्धनम्।
उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम्।।

अर्थात : जो विद्या पुस्तकों तक ही सीमित है और जो धन दूसरों के पास पड़ा है, आवश्यकता पड़ने पर न तो वह विद्या काम आती है और न ही वह धन उपयोगी हो पाता है।

आचार्य कहना चाहते हैं कि विद्या कण्ठाग्र होनी चाहिए तथा धन सदैव अपने हाथ में होना चाहिए, तभी इनकी सार्थकता है।

@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER

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