TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI
धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेन यो हीनः स हीनः सर्ववस्तुषु।।
अर्थात : धन से हीन मनुष्य दीन-हीन नहीं होता, यदि वह विद्या धन से युक्त हो तो, परंतु जिस मनुष्य के पास विद्या रूपी रत्न नहीं है, वह सभी चीजों से हीन माना जाता है।
दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्।
शास्त्रपूतं वदेत् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्।।
अर्थात : भली-प्रकार आंख से देखकर मनुष्य को आगे कदम रखना चाहिए, कपड़े से छानकर जल पीना चाहिए, शास्त्र के अनुसार कोई बात कहनी चाहिए और कोई भी कार्य मन से भली प्रकार सोच-समझकर करना चाहिए।
आचार्य के अनुसार, मनुष्य को सोच-समझकर उचित कार्य करना चाहिए। किसी कार्य को करने से पहले यह भली प्रकार जांच-परख लें कि वह व्यवहार और शास्त्र से विरुद्ध तो नहीं है। सदैव सावधान और सचेत रहकर प्रत्येक कार्य को करने की सलाह यहां दी गई है। जल के प्रति की गई असावधानी अनेक रोगों की उत्पत्ति कर सकती है।
रंकं करोति राजानं राजानं रंकमेव च।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः।।
अर्थात : भाग्य की महिमा अपरम्पार है क्योंकि वह निर्धन अर्थात भिखारी को पल में राजा बना सकता है और राजा को कंगाल। इसी तरह भाग्य के ही कारण धनवान व्यक्ति निर्धन बन जाता है और निर्धन धनवान।
लुब्धानां याचकः शत्रुर्मूर्खाणां बोधकः रिपुः।
जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चोराणां चन्द्रमा रिपुः।।
अर्थात : मांगने वाला लोभी मनुष्य का शत्रु होता है। मूल् का शत्रु उन्हें सदुपदेश देने वाला होता है। व्यभिचारिणी स्त्रियों का शत्रु पति होता है और चोरों का शत्रु है चंद्रमा।
लोभी अथवा लालची व्यक्ति उसको अपना शत्रु मानता है, जो उससे किसी चीज को लेने की आशा रखता है अथवा कुछ मांगता है, मूल् को सदुपदेश देने वाला अथवा उन्हें सन्मार्ग पर चलाने वाला उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है, क्योंकि मूर्ख व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि किसी की अच्छी बात को वह नहीं मानता और अपने कार्यों को ही सही ठहराता है। जो स्त्री व्यभिचारिणी है, पति उसे इस काम से रोकने का प्रयत्न करता है, इसलिए उसे वह अपना शत्रु मानती है। चोर-उचक्के लोग रात्रि के समय अंधकार में अपना कार्य करते हैं, चांदनी रात में उनके लिए चोरी करना असंभव होता है, इसलिए चंद्रमा उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है। इस प्रकार जो किसी के कार्य में रुकावट डालता है, वही उसका शत्रु है।
येषां न विद्या न तपो दानं न ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थात : जिन मनुष्यों के पास न विद्या है न ही जिन्होंने किसी प्रकार का तप किया है, जिनमें न दान देने की प्रवृत्ति है, न ज्ञान है, दया और नम्रता आदि भी नहीं है, गुण और धर्माचरण की भावना नहीं है, ऐसे मनुष्य पशु के रूप में इस संसार में विचरते हैं। धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।
अर्थात : इस संसार में ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे दुर्जन व्यक्ति को सज्जन बनाया जा सके, बिलकुल उसी तरह जिस प्रकार गुदा को चाहे सैकड़ों प्रकार से और सैकड़ों बार धोया जाए फिर भी वह श्रेष्ठ अंग नहीं बन सकती।
आत्मद्वेषात् भवेन्मृत्युः परद्वेषात् धनक्षयः।
राजद्वेषात् भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषात् कुलक्षयः।।
अर्थात : जो मनुष्य अपनी ही आत्मा से द्वेष रखता है वह स्वयं को नष्ट कर लेता है। दूसरों से द्वेष रखने से अपना धन नष्ट होता है। राजा से वैर-भाव रखने से मनुष्य अपना नाश करता है और ब्राह्मणों से द्वेष रखने से कुल का नाश हो जाता है।
'आत्मद्वेषात्' की जगह कहीं 'आप्तद्वेषात्' शब्द का भी प्रयोग किया गया है। इसे पाठभेद कहते हैं। 'आप्त' का अर्थ है विद्वान, ऋषि, मुनि और सिद्ध पुरुष–'आप्तस्तु यथार्थवक्ता।' जो सत्य बोले, वह आप्त है। जो आत्मा के नजदीक है, वही आप्त है।
इस दृष्टि से इस श्लोक के दोनों रूप सही हैं। जो बिना किसी लाग-लपेट के निष्पक्ष भाव से बोले वह आप्त है। आत्मा की आवाज और आप्तवाक्य एक ही बात तो है। क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य अपना ही सबसे बड़ा मित्र है और शत्रु भी। इसी प्रकार आप्त अर्थात विद्वानों और सिद्ध पुरुषों से द्वेष रखने वाला व्यक्ति भी नष्ट हो जाता है।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयं पत्रफलाम्बुभोजनम्।
तृणेषु शय्या शतजीर्णवल्कलं न बंधुमध्ये धनहीनजीवनम्।।
अर्थात : भले ही मनुष्य सिंह और बाघ आदि हिंसक जानवरों से युक्त वन में निवास करे, किसी पेड पर अपना घर बना ले। वृक्षों के पत्ते और फल खाकर तथा पानी पीकर गुजारा कर ले, तिनकों की शय्या पर सो ले, फटे-पुराने वृक्षों की छाल के कपड़े पहन ले, परंतु अपने भाई-बंधुओं में धन से रहित अर्थात दरिद्र बनकर जीवन न बिताए।
इस श्लोक से यह बात भली प्रकार स्पष्ट होती है कि निर्धनता एक प्रकार का अभिशाप है। चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति अन्य सभी प्रकार के कष्ट सहन कर सकता है परंतु निर्धनता के कारण अपने सगे-संबंधियों द्वारा किए जाने वाले अपमान को सहन नहीं कर सकता। निर्धन को कौन अपना मानता है?
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च संध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।
अर्थात : ब्राह्मण एक वृक्ष के समान है और संध्या अर्थात प्रभु की उपासना और आराधना उसकी जड़ है, वेद उसकी शाखाएं हैं और धर्म-कर्म उसके पत्ते हैं, इसलिए यत्नपूर्वक जड़ की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि जड़ के नष्ट हो जाने पर न शाखाएं रहेंगी, न ही पत्ते।
ब्राह्मण एक वृक्ष के समान है। प्रातः और सायं दो कालों के बीच में जो समय पड़ता है उसे संधिवेला कहते हैं, उस समय ब्राह्मण प्रभु की पूजा व उपासना करता है। यह उसका आवश्यक कर्म है। यह ब्राह्मण रूपी वृक्ष के फलने-फूलने की जड़ें हैं अथवा आधार हैं। वेद का ज्ञान उस वृक्ष की शाखाएं हैं। उसके धर्मानुकूल अच्छे कार्य, उसके पत्ते के समान हैं। इसलिए यत्नपूर्वक उस वृक्ष के मूल की रक्षा करनी चाहिए। मूल की रक्षा से ही वृक्ष फलताफूलता है। यदि जड़ ही नष्ट हो जाएगी तो वृक्ष कैसे बचेगा? आचार्य यहां कहते हैं कि प्रत्येक ब्राह्मण को संध्या करनी ही चाहिए। इसी से वह ब्रह्म बल को प्राप्त करता है।
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्।
वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः।।
अर्थात : जिसके पास बुद्धि अर्थात ज्ञान है, उसके पास ही बल होता है, बुद्धिहीन व्यक्ति के पास बल कहां। जंगल में अपनी शक्ति के मद में मस्त सिंह को एक खरगोश ने मार डाला (यह इसी का प्रमाण है)।
पंचतंत्र में भी इस कथा का उल्लेख है, जिसमें छोटे से खरगोश ने अपनी बुद्धि के बल से बलवान सिंह को भी मरने को विवश कर दिया। बुद्धिमान व्यक्ति अपने बल का तो सही उपयोग करता ही है, वह दूसरे के बल को भी अपने अनुसार प्रयोग करने में सफल हो जाता है।
का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं निर्मयेत्।
इत्यालोच्य मुहर्मुहर्यदुपते लक्ष्मीपते केवलं त्वत्पादाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते।।
अर्थात : यदि भगवान विष्णु को सारे संसार का पालन-पोषण करने वाला कहा गया है तो मुझे इस जीवन में किसी बात की चिंता करने की आवश्यकता नहीं। यदि भगवान विष्णु न होते तो गर्भ में स्थित बालक के जीवन के लिए माता के स्तनों में दूध कहां से आता? बारबार इस तरह का विचार करके हे तीनों लोकों के स्वामी! मैं आपके चरण- कमलों की सेवा करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूं।
भाव यह है कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर ही सबका भरण-पोषण करता है, ऐसी स्थिति में मनुष्यों को किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो बालक गर्भ में है उसके पालन-पोषण के लिए माता के स्तनों में दूध पहले ही उत्पन्न हो जाता है। यदि ऐसा है, तो चिंता किस बात की। हां, परमेश्वर का स्मरण करते हुए उसके प्रति अपनी कृतज्ञता का भाव अवश्य प्रकट करना चाहिए।
अन्नाद्दशगुणं पिष्टं पिष्टाद्दशगुणं पयः।
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद्दशगुणं घृतम्।।
अर्थात : अन्न से दस गुणा अधिक शक्ति उसके आटे में है। आटे से दस गुणा अधिक शक्ति दूध में है, दूध से आठ गुणा अधिक शक्ति मांस में है और मांस से दस गुणा अधिक शक्ति घी में है।
शाकेन रोगा वर्धन्ते पयसा वर्धते तनुः।
घृतेन वर्धते वीर्यं मांसान्मांसं प्रवर्धते।।
अर्थात : साग खाने से रोग बढ़ते हैं, दूध से शरीर मोटा होता है, घी से वीर्य की वृद्धि होती है और मांस से मांस बढ़ता है।
साग से रोग बढ़ना संकेत करता है कि अधिकांश लोग उसे भली प्रकार धोकर प्रयोग में नहीं लाते। इसलिए निरंतर उनका सेवन करने से रोगों की वृद्धि होती है। दूध से शरीर बढ़ता है। बालकों और किशोरों को दूध का सेवन करना चाहिए। घी का अधिक सेवन करने से वीर्य की वृद्धि होती है कम मात्रा से ज्यादा ऊर्जा। मांस खाने से शरीर का मांस बढ़ता है। मोटापे से पीड़ित व्यक्ति को इसके सेवन से बचना चाहिए। इस प्रकार चाणक्य के अनुसार घी इन सब वस्तुओं में श्रेष्ठ माना गया है, जिससे बल और वीर्य दोनों की वृद्धि होती है।
जय हिंद मेरे प्रिय पाठक गण, यह लघु लेख आपको कैसी लगी आप अपनी प्रतिक्रिया कमेंट बॉक्स में जरुर दीजिएगा क्योंकि हम आपके प्रतिक्रिया का इंतजार करते हैं। और हां इस लघु लेख को अपने मित्रों और सगे संबंधियों के साथ शेयर जरूर कीजिएगा। धन्यवाद
@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER
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