TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI
दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता।
अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः।।
अर्थ : दान देने की इच्छा, मधुर भाषण, धैर्य और उचित अथवा अनुचित का ज्ञान, ये चार गुण मनुष्य में सहज - स्वभाव से ही होते हैं, अभ्यास से इन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता।
सहज का अर्थ है - साथ में उत्पन्न अर्थात् जन्म के साथ। व्यवहार में इसे कहते हैं, 'खून में होना'। इन गुणों में विकास किया जा सकता है, लेकिन इन्हें अभ्यास द्वारा पैदा नहीं किया जा सकता।
आज की भाषा में यदि कहें, तो ये गुण आनुवंशिक हैं जींस में हैं। परिवेश इन्हें विकसित कर सकता है बस। इन्हें थोडा-बहत तराश सकता है वातावरण। सह अभ्यास द्वारा प्राप्त गुणों में अंतर होता है। सहज गुण नष्ट नहीं होते, जबकि अभ्यास द्वारा जिन्हें प्राप्त किया जाता है, अनभ्यास द्वारा वे समाप्त हो जाते हैं।
हां, ऐसा देखने में आया है कि कभी-कभी सहज गुण उचित वातावरण न मिलने के कारण सामने नहीं आ पाते।
हस्ती स्थूलतनुः स चांकुशवशः किं हस्तिमात्रोकुशो दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः। वजेणापि हताः पतन्ति गिरयः किं वज्रमात्रो गिरिम् तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु कः प्रत्ययः।।
अर्थ : हाथी लंबे-चौड़े शरीर वाला होता है परंतु उसे बहुत छोटे से अंकुश द्वारा वश में किया जाता है। दीपक जलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है तो क्या अंधकार दीपक के आकार का होता है? हथौड़े की चोट करने से बड़े-बड़े पर्वत गिर पड़ते हैं, तो क्या पर्वत का आकार प्रकार हथौड़े से छोटा होता है? प्रत्येक वस्तु अपने तेज के कारण ही बलवान होती है, लंबा चौड़ा शरीर कोई मायने नहीं रखता है।
कलौ दशसहस्त्रेषु हरिस्त्यजति मेदिनीम्।
तदर्थं जाह्नवीतोयं तदर्थं ग्रामदेवता।।
अर्थ : लोग ऐसा मानते हैं कि कलियुग के दस हजार वर्ष समाप्त होने के बाद परमात्मा पृथ्वी का त्याग कर देते हैं। उससे आधे अर्थात पांच हजार वर्ष समाप्त होने पर गंगा का जल पृथ्वी को छोड़ देता है और उसके आधे वर्ष समाप्त होने पर गांव का देवता गांव छोड़कर चला जाता है।
कुछ लोगों ने इसका अर्थ इस प्रकार भी किया है कि जब कलियुग की समाप्ति में दस हजार वर्ष रह जाएंगे तब भगवान इस संसार को छोड़कर चले जाएंगे। पांच हजार वर्ष शेष रहने तक गंगा का जल समाप्त हो जाएगा और ढाई हजार वर्ष शेष रहने तक गांव का देवता, गांव छोड़कर चला जाएगा। कुछ लोगों का ऐसा विचार है कि कलियुग में अधर्म बढ़ जाने से इस प्रकार की स्थिति पैदा होती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि चाणक्य जैसा बुद्धिमान व्यक्ति इस प्रकार की बातें नहीं कह सकता, इसलिए यह श्लोक बाद में जोड़ा गया है। अर्थात् प्रक्षिप्त है यह श्लोक।
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।।
अर्थ : जिस प्रकार नीम के वृक्ष को दूध और घी से सींचने पर भी उसमें मिठास पैदा नहीं होती, उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति अनेक प्रकार से समझाने-बुझाने पर भी सज्जन नहीं हो पाता।
जिस तरह कुछ शारीरिक क्रियाएं मनुष्य के नियंत्रण से बाहर होती हैं, इसी प्रकार लंबे अभ्यास के परिणाम स्वरूप पड़े संस्कारों के कारण कुछ मानसिक क्रियाएं भी मनुष्य के वश से बाहर हो जाती हैं, जिसे सिगमंड फ्रायड ने 'अवचेतन मन' कहा है। सज्जनता और दुष्टता का संबंध इसी मनोस्तर पर बैठे मनुष्य की क्रियाओं को नियंत्रित करने वाले संस्कारों से है। इसीलिए जब तक वहां परिवर्तन न हो, किसी के मूल स्वभाव को बदलना अत्यंत कठिन होता है।
ये तु संवत्सरं पूर्णं नित्यं मौनेन भुञ्जते।
युगकोटिसहस्त्रं तु स्वर्गलोके महीयते।।
अर्थ : जो व्यक्ति पूरे वर्ष तक मौन रहकर चुपचाप भोजन करता है, वह एक करोड़ वर्ष तक स्वर्ग में आदर-सम्मान प्राप्त करता है।
अर्थ यह है कि जो व्यक्ति अपने धर्म का पालन करते हुए सदाचारपूर्वक श्रम करता है और जो कुछ भी अर्जित करता है उससे संतुष्ट रहता है, उससे सभी देवी-देवता प्रसन्न रहते हैं अर्थात उसे किसी प्रकार के कष्टों का मुख नहीं देखना पड़ता। उसका सभी जगह सम्मान होता है। यहां मौन का अर्थ प्राप्त की सहज स्वीकृति है-चुप रहना नहीं।
कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं शृंगारकौतुके।
अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत्।।
अर्थ : विद्यार्थी के लिए आवश्यक है कि वह काम, क्रोध, लोभ, स्वादिष्ट पदार्थों की इच्छा, शृंगार, खेल-तमाशे, अधिक सोना और चापलूसी करना आदि इन आठ बातों का त्याग कर दे।
एकाहारेण सन्तुष्टः षट्कर्मनिरतः सदा।
ऋतुकालाभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते।।
अर्थ : एक समय भोजन करने से जो संतुष्ट है, जो नित्य अपने कर्तव्यों को पूरा करता रहता है, स्त्री का संग ऋतुकाल में, केवल संतान की उत्पत्ति करने के लिए ही करता है, उपभोग के लिए नहीं, ऐसे ब्राह्मण को ही द्विज कहा जाता है।
चाणक्य ने यहां प्रत्येक वर्ण के लोगों का कर्तव्य बताने का प्रयत्न किया है। यदि प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने कर्तव्यों का भली प्रकार पालन करता रहे तो देश में शांति सुख बना रहे। जब लोग अपना कर्तव्य भूलकर गलत आचरण करने लगते हैं, अनधिकार चेष्टा करते हैं तो दुराचार के साथ-साथ समाज में अशांति भी फैलती है।
लौकिके कर्मणि रतः पशूनां परिपालकः।
वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते।।
अर्थ : सदा सांसारिक कार्यों में संलग्न, पशुओं के पालक, व्यापार और खेती आदि करने वाले ब्राह्मण को वैश्य कहा जाता है।
परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदुः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।
अर्थ : जो दूसरों के कार्य को बिगाड़ता है, ढोंगी है, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करने में लगा रहता है, दूसरों को धोखा देता है, सबसे द्वेष करता है, ऊपर से देखने में अत्यंत नम्र और अंदर से पैनी छुरी के समान है, ऐसे ब्राह्मण को बिलाव कहा गया है।
जिस व्यक्ति का ध्यान सदा दूसरों के कार्य बिगाड़ने में लगा रहता है, जो सदा ही अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगा रहता है, लोगों को धोखा देता है, बिना कारण के ही उनसे शत्रुता रखता है, जो ऊपर से कोमल और अन्दर से क्रूर है, उस ब्राह्मण को बिलाव के समान निकृष्ट पशु माना गया है।
देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं परदाराऽभिमर्शनम्।
निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते।।
अर्थ : जो देवताओं और गुरु के धन को चुरा लेता है, दूसरों की स्त्रियों के साथ सहवास करता है और जो सभी तरह के प्राणियों के साथ अपना जीवन गुजार लेता है, उस ब्राह्मण को चाण्डाल कहा जाता है।
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@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER
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