अध्याय 12 | TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI | आचार्य चाणक्य नीति


TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI

सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कान्ता प्रियालापिनी इच्छापूर्तिधनं स्वयोषितिरतिः स्वाऽऽज्ञापराः सेवकाः।आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे
साधोः संगमुपासते च सततं धन्यो गृहस्थाऽऽश्रमः।।

अर्थात : उसी का घर सुखी हो सकता है, जिसके पुत्र और पुत्रियां अच्छी बुद्धि से युक्त हों, जिसकी पत्नी मृदुभाषिणी हो, जिसके पास परिश्रम हो, ईमानदारी से पैदा किया हुआ धन हो, अच्छे मित्र हों, अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और अनुराग हो, नौकर-चाकर आज्ञा का पालन करने वाले हों। जिस घर में अतिथियों का आदर-सम्मान होता है, कल्याणकारी परमेश्वर की उपासना होती है, घर में प्रतिदिन अच्छे मीठे भोजन और मधुर पेयों की व्यवस्था होती है, सदा सज्जन पुरुषों का संग अथवा संगति करने का अवसर मिलता है, ऐसा गृहस्थ आश्रम धन्य है, प्रशंसा के योग्य है।

आदर्श गृहस्थ का रूप-स्वरूप कैसा होना चाहिए, इस ओर आचार्य ने इस श्लोक में स्पष्ट रूप से इशारा किया है।

आर्तेषु विप्रेषु दयान्वितश्च यत् श्रद्धया स्वल्पमुपैति दानम्।
अनन्तपारं समुपैति राजन् यद्दीयते तन्न लभेद्
द्विजेभ्यः।।

अर्थात :  दयालु और करुणा से युक्त मनुष्य दुखी ब्राह्मणों को श्रद्धा से जो कुछ भी दान देता है। हे राजन्! वह दान देने वाले को उतना ही प्राप्त नहीं होता है, प्रभु की कृपा से उसमें काफी वृद्धि होती है और वह दान देने वालों को भली-प्रकार मिलता जाता है।

कबीर आदि अनेक संतों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि 'दान दिए धन न घटे', अर्थात दान करने से दान देने वाले के धन में कमी नहीं आती बल्कि उसमें पुण्य के रूप में वृद्धि ही होती है।

दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने प्रीतिः साधुजने स्मयः खलजने विद्वज्जने चार्जवम्।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धृष्टता इत्थं ये पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेवलोकस्थितिः।।

अर्थात : अपने बन्धु-बान्धवों के साथ वही व्यक्ति सुख से रह सकता है, जो उनके साथ सज्जनता और नम्रता का व्यवहार करता है। दूसरे लोगों पर दया और दुर्जन के प्रति भी उनके अनुकूल व्यवहार करता है, सज्जन लोगों से जो प्रेम रखता है, दुष्टों के प्रति जो कठोर होता है और विद्वानों के साथ सरलता से पेश आता है। जो शक्तिशाली लोगों के साथ शूरवीरता और पराक्रम से काम लेता है, गुरु, माता-पिता और आचार्य के प्रति जो सहनशीलतापूर्ण व्यवहार रखता है तथा स्त्रियों के प्रति अधिक विश्वास न करके जो उनके प्रति चतुराईपूर्ण व्यवहार करता है, वही कुशलतापूर्वक इस संसार में रह सकता है।

हस्तौ दानविवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणौ नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ। अन्यायार्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुंगं शिरो रे रे जम्बुक मुञ्च मुञ्च सहसा निन्द्यं सुनिन्द्यं वपुः।।

अर्थात : जिसके दोनों हाथ कभी दान आदि के कार्य में नहीं लगे अर्थात जिसने जीवन में कभी दान न दिया हो, कानों से वेद आदि शास्त्रों का श्रवण नहीं किया अर्थात उनसे द्वेष करता रहा हो, अपने दोनों नेत्रों से सज्जन पुरुषों के दर्शन नहीं किए, पैरों से तीर्थयात्रा नहीं की, माता-पिता तथा आचार्य की सेवा के लिए जो उनके पास कभी नहीं गया, जिसने अन्याय से धन इकट्ठा करके अपनी आजीविका चलाई, इतने पर भी जो आदमी अभिमान से सिर ऊंचा उठाकर चलता है, ऐसे व्यक्ति के लिए चाणक्य कहते हैं कि हे गीदड के समान नीच मनुष्य! तू तो नीच लोगों से भी नीच है, तू अत्यंत निंदनीय है, इसलिए जितनी जल्दी हो सके, इस नीच शरीर को त्याग दे अर्थात तेरे इस प्रकार के जीवन से तेरा मर जाना अति उत्तम है।

सत्संगाद्भवति हि साधुता खलानां साधूनां न हि खलसंगमात्खलत्वम्।
आमोदं कुसुम-भवं मृदेव धत्ते मृद्गन्धं न हि कुसुमानि धारयन्ति।।

अर्थात : सज्जनों के सत्संग से दुर्जन मनुष्य भी सज्जन हो सकता है, परंतु सज्जन पुरुषों में दुष्टों की संगति से दुष्टता वैसे ही नहीं आती जैसे फूल से उत्पन्न होने वाली सुगंध मिट्टी में तो आ जाती है, परंतु मिट्टी की गंध फूल में नहीं आ पाती है।

इसका अर्थ यह है कि जिसका जो वास्तविक स्वभाव है, उसमें परिवर्तन नहीं होता अर्थात ऐसा स्वभाव जो परिवर्तनशील नहीं है, श्रेष्ठ माना जाता है। दुष्ट का सज्जन के संग से सज्जन बन जाना और दुष्ट के संग से सज्जन का सज्जन ही बने रहना इस बात की पुष्टि करता है कि सज्जनता मनुष्य का सच्चा स्वभाव है।

सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया स्वसा।
शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः।।

अर्थात : किसी सांसारिक पुरुष ने किसी संत-महात्मा को अत्यंत आनंद की स्थिति में देखकर उनसे उनके बंधु-बांधवों के बारे में पूछा, तो संत ने उत्तर दिया-सत्य ही मेरी माता है और ज्ञान मेरा पिता है, धर्म ही मेरा भाई है और दया मेरी बहन है, शांति मेरी पत्नी है और क्षमा और सहनशीलता मेरे पुत्र हैं, यह छह ही मेरे परिवार के सदस्य हैं, मेरे बन्धु-बान्धव हैं, मेरे रिश्तेदार हैं।

धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽति गम्भीरता।
आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञानता रूपे सुन्दरता शिवे भजनता सत्स्वेव संदृश्यते।।

अर्थात : धर्म में निरंतर लगे रहना, मुख से मीठे वचन बोलना, दान देने में सदैव उत्सुक रहना, मित्र के प्रति कोई भेद-भाव न रखना, गुरु के प्रति नम्रता और अपने हृदय में गंभीरता, अपने आचरण में पवित्रता, गुणों के ग्रहण करने में रुचि, शास्त्रों का विशेष ज्ञान, रूप में सौंदर्य और प्रभु में भक्ति आदि का होना-ये गुण सज्जन पुरुषों में ही दिखाई देते हैं।

विनयं राजपुत्रेभ्यः पण्डितेभ्यः सुभाषितम्।
अनृतं द्यूतकारेभ्यः स्त्रीभ्यः शिक्षेत् कैतवम्।।

अर्थात : व्यक्ति सभी स्थानों से कुछ न कुछ सीख सकता है। उसे राजपुत्रों से नम्रता और सुशीलता, विद्वानों से प्रिय वचन बोलना, जुआरियों से मिथ्या-भाषण अर्थात सही स्थिति का पता न लगने देना और स्त्रियों से छल करना सीखना चाहिए।

इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो उपयोगी न हो। बस उसका सही समय पर, सही तरह से उपयोग आना चाहिए। मिथ्या भाषण और छल भी जीवन में उपयोगी होते हैं। इनका उपयोग उन्हीं के प्रति करें, जो आपको इनमें उलझाएं। लोहे को लोहा ही काटता है।

नाहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।

अर्थात : बुद्धिमान मनुष्य को भोजन प्राप्ति के संबंध में चिंता नहीं करनी चाहिए, उसे केवल धर्म-कर्म के संबंध में चिंतन करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य के जन्म के समय ही भोजन का प्रबंध हो जाता है, प्रारब्ध द्वारा कर दिया जाता है।

बुद्धिमान व्यक्ति खानपान की चिंता किए बिना धर्म-कार्य में लगे रहते हैं। कर्तव्यों का निर्वाह करने वाले की इच्छाएं प्रकृति पूरी करती है।

आचार्य के इस कथन से उन्हें भाग्यवादी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। यहां आचार्य यह कहना चाह रहे हैं कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का करना चाहिए। कर्तव्यों की दिशा यदि सही हो, तो उसकी कामनाओं की पूर्ति सहज में होने लगती है। कई संतों महापुरुषों का जीवन इस कथन की पुष्टि करता है।

जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।

अर्थात : जैसे बूंद-बूंद से घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार निरंतर इकट्ठा करते रहने से धन, विद्या और धर्म की प्राप्ति होती है।

वयसः परिणामेऽपि यः खलः खल एव सः।
सुपक्वमपि माधुर्यं नोपयातीन्द्रवारुणम्।।

अर्थात : जो व्यक्ति दुष्ट है, वह परिपक्व अवस्था का हो जाने पर भी दुष्ट ही बना रहता है, जैसे इंद्रायण का फल पक जाने पर भी मीठा नहीं होता, कड़वा ही बना रहता है।

यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति आयु के बढ़ने के साथ-साथ अपने स्वभाव में भी परिवर्तन कर सके। अधिकांश व्यक्ति, जो दुष्ट और दुर्जन होते हैं, अपने जीवन की अंतिम स्थिति तक दुष्ट ही बने रहते हैं। उनके जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता। जिस प्रकार इंद्रायण नामक फल पूरी तरह पक जाने पर भी कड़वा ही रहता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने स्वभाव को छोड़ने में असमर्थ रहता है।

@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER


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