अध्याय 13 | TOP 05 AACHARYA CHANAKYA NITI | आचार्य चाणक्य नीति


TOP 05 AACHARYA CHANAKYA NITI

मुहूर्तमपि जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।।

अर्थात : मनुष्य को यदि एक मुहूर्त अर्थात 48 मिनट का जीवन भी मिले तो उसे उत्तम और पुण्य कार्य करते हुए जीवित रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा ही जीवन उत्तम है, परंतु इस लोक और परलोक में दुष्ट कर्म करते हुए हजारों वर्ष जीना भी व्यर्थ है।

चाणक्य का भाव यह है कि मनुष्य का जीवन बहुत भाग्य से मिलता है। यदि जीवन बहुत छोटा भी हो तो भी उसे अच्छे कर्म करते हुए जीवित रहना चाहिए। बुरे काम करते हुए हजारों साल का जीवन भी व्यर्थ है। मनुष्य का धर्म है कि अच्छे कर्म करता हुआ अपने जीवन को बिताए। आयु की सार्थकता शुभ कर्मों से है।।

गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः।।

अर्थात : जो बातें बीत चुकी हैं, उन पर शोक नहीं करना चाहिए और भविष्य की भी चिंता नहीं करनी चाहिए। बुद्धिमान लोग वर्तमान समय के अनुसार कार्य में लगे रहते हैं।

व्यक्ति को चाहिए वह बीती हुई बातों पर शोक करने में व्यर्थ समय न गंवाए। उसे इस बात की भी चिंता नहीं करनी चाहिए कि आगे क्या होने वाला है। अतीत हाथ से निकल चुका है, तो भविष्य की केवल कल्पना की जा सकती है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को वर्तमान स्थितियों के अनुरूप अपने काम में लगे रहना चाहिए। इससे बीते कल में हुई भूलों को ठीक किया जा सकता है और आने वाले कल को एक उत्तम आधार दिया जा सकता है।

जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्।
मतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः।।

अर्थात : चाणक्य कहते हैं कि मैं धर्म से रहित अधर्मी व्यक्ति को जीवित रहने पर भी मरे हुए के समान समझता हूं। जबकि धर्मयुक्त मनुष्य मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है, इस बात में किसी प्रकार का सन्देह नहीं।

मृत्यु के बाद धार्मिक व्यक्ति के जीने का अर्थ यह है कि व्यक्ति की कीर्ति, उसका यश उसके अच्छे कार्यों के कारण अमर रहते हैं। अधार्मिक व्यक्ति तो जीवित रहता है मरे के समान है क्योंकि न तो उसे कोई पूछता है और न ही उसका समाज में कोई सम्मान होता है।

बन्धाय विषयाऽऽसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।।

अर्थात : मनुष्य अपने विचारों के कारण ही अपने आपको बन्धनों में फंसा हुआ मानता है और अपने विचारों के कारण ही अपने आपको बंधनों से मुक्त समझता है। विषय-वासनाएं ही मनुष्य के बंधन के कारण हैं और विषय-वासनाओं से मुक्त होकर ही मनुष्यों को मोक्ष प्राप्त होता है।

यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।।

अर्थात : जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़ा केवल अपनी मां के ही पास जाता है, उसी प्रकार जो कर्म किया जाता है, वह कर्म करने वाले के पीछे-पीछे चलता है।

@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER

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