TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI | आचार्य चाणक्य नीति | Chanakya niti


TOP 10 AACHARYA CHANAKYA NITI

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।

अर्थात : इस पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं जल, अन्न और हितकारी वचन, परंतु मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़े को रत्न कहते हैं।

बहूनां चैव सत्त्वानां समवायो रिपुञ्जयः।
वर्षाधाराधरो मेघस्तृणैरपि निवार्यते।।

अर्थात : निश्चित रूप से बहुत से मनुष्य मिलकर शत्रु को जीत सकते हैं। मनुष्यों का समुदाय अर्थात उनका सगंठन शत्रु को जीतने में उसी प्रकार सफल रहता है, जिस प्रकार इकट्ठे किए हुए तिनके जल की धारा को रोक देते हैं अर्थात घास-फूस का छप्पर वर्षा के पानी से रक्षा करता है।

यह बात देखने-सुनने में बहुत सामान्य प्रतीत होती है, परंतु यह है अत्यंत महत्वपूर्ण। जिस परिवार में मतभेद होते हैं, आपस में एकता नहीं होती, वह परिवार नष्ट हो जाता है। इसी तरह जिन परिवारों में अथवा देश के लोगों में एकता है, मिलकर काम करने की इच्छा है, वे भयंकर-से-भयंकर शत्रु को पराजित करने में समर्थ होते हैं। वृक्ष की एक शाखा को कोई एक बच्चा भी तोड़ सकता है, परंतु जब पतली-पतली शाखाएं इकट्ठी हो जाती हैं तो इन्हें शक्तिशाली हाथी के लिए तोड़ना भी कठिन हो जाता है।संघे शक्तिः कलौ युगे।

जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः।।

अर्थात : जल पर तेल, दुष्ट व्यक्ति के पास गुप्त वार्ता, सुपात्र व्यक्ति को दिया गया दान, बुद्धिमान का शास्त्रज्ञान ये सभी बातें ऐसी हैं, जो पूरी होने पर वस्तु की शक्ति अर्थात विशेषता से बिना किसी प्रयास के स्वयं फैल जाती हैं, इनका विस्तार हो जाता है।

पानी पर यदि तेल की बूंद डाली जाएगी तो वह बूंद के रूप में न रहकर उस पर फैल जाएगी, इसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति के पास कोई रहस्य गुप्त नहीं रह सकता। सुपात्र व्यक्ति को दिया हुआ दान और बुद्धिमान व्यक्ति को दिया गया शास्त्रज्ञान, ये सब अपने आप अपनी विशेषता के कारण चारों ओर फैल जाते हैं।

धर्माऽऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात्।।

अर्थात : धार्मिक कथा आदि के सुनने के समय, श्मशान भूमि में और रोगी होने पर मनुष्य के मन में जो सद्बुद्धि उत्पन्न होती है, यदि वह सदैव स्थिर रहे तो मनुष्य संसार के बंधनों से छूट सकता है।

जब मनुष्य धर्म संबंधी उपदेश सुनता है तो उसके मन में अच्छे विचारों का उदय होता है। इसी प्रकार जब मनुष्य किसी मृत व्यक्ति के साथ श्मशान भूमि में जाता है तो वह समझता है कि यह शरीर नश्वर है, उस समय उसके मन में पापों से मुक्त होने की सद्भावना उत्पन्न होती है। ऐसे ही जब मनुष्य रोगग्रस्त होता है तो वह प्रभु को याद करता है और उस समय सोचता है कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा, जिससे उसे फिर बीमार होना पड़े। चाणक्य कहते हैं कि यदि व्यक्ति सदैव इसी प्रकार सोचता रहे तो वह संसार के बन्धनों से छूट सकता है। परंतु होता यह है कि जब मनुष्य धर्म सभा से उठ जाता है, श्मशान भूमि से लौट आता है और रोग से मुक्त हो जाता है तो वह फिर से संसार के उसी मोह-मायाजाल में फंस जाता है। यही माया है।

उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी।
तादृशी यदि पूर्वं स्यात् कस्य न स्यान्महोदयः।।

अर्थात : दुष्कर्म करने के बाद पश्चात्ताप करने वाले मनुष्य की बुद्धि जिस प्रकार की होती है, वैसी बुद्धि यदि पाप करने से पहले भी हो जाए तो सभी को मुक्ति प्राप्त हो सकती है।

मनुष्य बुरा कार्य करने के बाद पछताता है, उसे अपने किए हुए कार्य पर पछतावा होता है। वह जानता है कि उसने वह किया है, जो उसे नहीं करना चाहिए। चाणक्य कहते हैं कि यदि दुष्कर्म करने से पहले ही मनुष्य के विचार वैसे ही हो जाएं जैसे पश्चात्ताप के समय होते हैं, तो कोई भी दुष्कर्म न हो।

दाने तपसि शौर्ये वा विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा।।

अर्थात : दान, तपस्या, वीरता, विज्ञान, विनम्रता और नीतिवान होने में मनुष्य को सबसे बड़ा होने का अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि पृथ्वी अनेक अमूल्य रत्नों से भरी हुई है।

यस्य चाप्रियमिच्छेत तस्य ब्रूयात् सदा प्रियम्।
व्याधो मृगवधं कर्तुं गीतं गायति सुस्वरम्।।

अर्थात : जिसका बुरा करने की इच्छा हो, उससे सदा मीठी बात करनी चाहिए, जैसे शिकारी हिरण को पकड़ने से पहले मीठी आवाज में गीत गाता है।

इस श्लोक में एक सामान्य सांसारिक बात कही गई है। जो मन अपने पाप के कारण किसी का अहित चाहता है, वह पहले सदा मीठी-मीठी बातें करता है। जिस प्रकार हिरण आदि का शिकार करने से पहले शिकारी मधुर आवाज में गीत गाता है, सांप को पकडने वाला मस्त होकर बीन बजाता है। इस प्रकार ये दोनों मधुर स्वर के आकर्षण में बंधकर शिकारी के पास खुद आ जाते हैं तो शिकारी उन्हें पकड़ लेता है। जब तक दूसरे में असुरक्षा की भावना है, उसके मर्मस्थल पर आघात नहीं किया जा सकता।

चाणक्य कहते हैं कि दुष्ट व्यक्ति अहित करने की इच्छा से मीठी-मीठी बातें करते हैं, ऐसा करके वे पहले रिझाते हैं फिर हानि पहुंचाते हैं। जुआरी पहले लाभ होने का लालच दिखाता है, जिससे भोलाभाला व्यक्ति उसके जाल में फंसकर बड़ी-सी रकम दांव में लगा देता है और अपनी हानि कर बैठता है।

अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः।
सेवितव्यं मध्यभागेन राजा वनिर्गुरुः स्त्रियः।।

अर्थात : राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री इनके पास हर समय नहीं रहना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य को हानि हो सकती है। परंतु इनसे दूर रहने से भी मनुष्य को कोई लाभ नहीं होता। इसलिए इनसे व्यवहार करते समय व्यक्ति को बहुत सोच-समझकर बीच का रास्ता अपनाना चाहिए-इसी को मध्यम मार्ग कहते हैं।

मध्यम मार्ग का अर्थ है कि व्यक्ति को किसी वस्तु अथवा विचार में न तो अधिक लिप्त होना चाहिए और न ही उसका सर्वथा परित्याग करना चाहिए। मध्यम मार्ग में दोनों छोरों का परित्याग करना पड़ता है और एक बीच का रास्ता अपनाना पड़ता है। गौतम बुद्ध ने इसी मार्ग को अपनाने पर बल दिया था। श्रीकृष्ण इसे 'समत्व' कहते हैं। इसमें अति वर्जित है।

स जीवति गुणा यस्य यस्य धर्मः स जीवति। गुणधर्मविहीनस्य जीवितं निष्प्रयोजनम्।।

अर्थात : संसार में वही जीवित रहता है, जिसमें गुण और धर्म जीवित रहता है। गुणों और धर्म से रहित मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।

इस संसार में गुणी व्यक्तियों के जीवन को श्रेष्ठ माना गया है, इस प्रकार धर्मात्मा व्यक्तियों का जीवन ही जीवन है, परंतु जिस व्यक्ति में न तो कोई गुण है और न ही धर्म, उसका जीवन बिलकुल व्यर्थ है।

यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा।
परापवादसस्येभ्यो गां चरन्ती निवारय।।

अर्थात : हे मनुष्य! यदि तू किसी एक ही कर्म द्वारा सारे संसार को अपने वश में करना चाहता है तो तू दूसरों की निंदा करने वाली अपनी वाणी को वश में कर ले अर्थात दूसरों की निंदा करना छोड़ दे।

दूसरों की निंदा छोड़ने का अर्थ है अपनी आलोचना और दूसरों के गुणों को ग्रहण करना। ऐसा करने वाला सहज रूप से विश्व को जीत लेगा।

प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम्।
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः।।

अर्थात : जो अवसर के अनुकूल बात करना जानता है, जो अपने यश और गरिमा के अनुकूल मधुर-भाषण कर सकता है और जो अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करता है, उसी को वास्तव में विद्वान कहा जाता है।

व्यक्ति को अवसर के अनुकूल ही वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए और उस समय इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि इससे प्रतिष्ठा बढ़ेगी अथवा घटेगी। जो व्यक्ति समय के अनुकूल बात नहीं करता, जिसे अपने मान-अपमान का कोई ज्ञान नहीं या जो प्रिय भाषण अथवा मधुर-भाषण करना नहीं जानता, वह मूर्ख है। जो व्यक्ति समय के अनुरूप बात करता है, अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करता है, वही पण्डित अथवा सब कुछ जानने वाला विद्वान है।

सुसिद्धमौषधं धर्मं गृहच्छिद्रं च मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत्।।

अर्थात : बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि सिद्ध की हुई औषधि, अपने द्वारा किए जाने वाले धर्माचरण, घर के दोष, स्त्री के साथ संभोग, कुभोजन तथा सुने हुए निंदित वचन किसी के सामने प्रकट न करे।

तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलैश्चैव वासराः।
यावत्सर्वजनानन्ददायिनी वाक्प्रवर्तते।।

अर्थात : जब तक सभी को आनंद देने वाली बसंत ऋतु आरंभ नहीं होती, तब तक कोयल मौन रहकर अपने दिन बिता देती है अर्थात बसंत ऋतु के आने पर ही कोयल की कूक सुनाई देती है।

इसका भावार्थ है कि व्यक्ति को बड़े धैर्य से सही समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। सही समय पर कही गई सही बात ही असरदार होती है।

त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम्।।

अर्थात : हे मनुष्य! दुष्टों के संग को त्याग दे और सज्जन पुरुषों का संग कर। दिन-रात अच्छे कार्य किया कर, सदैव संसार को नाशवान समझकर परमेश्वर का ध्यान किया कर।

मनुष्य को जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसी का सूत्र है मानो यह श्लोक। नैतिकता का सार-संक्षेप निहित है इस श्लोक में।

@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER

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