अध्याय 15 | TOP 05 AACHARYA CHANAKYA NITI | आचार्य चाणक्य नीति


TOP 05 AACHARYA CHANAKYA NITI

यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः।।

अर्थात : जिसका हृदय प्राणिमात्र पर दया से पिघल जाता है, उसे ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने, तथा जटाधारण और शरीर पर भस्म लगाने की क्या आवश्यकता है?

जिस व्यक्ति के मन में प्राणियों के कष्टों को देखकर दया के भाव आते हैं, उसे ज्ञान प्राप्त करने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए तप करने की आवश्यकता नहीं है। चाणक्य ने मनुष्य के मन में दया के भाव को सभी धर्मों से ऊंचा स्थान दिया है।

कुचैलिनं दन्तमलोपसृष्टं बाशिनं निष्ठुरभाषिणं च।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः।।

अर्थात : गंदे कपड़े पहनने वाले, गंदे दांतों वाले अर्थात दांतों की सफाई न करने वाले, अधिक भोजन करने वाले, कठोर वचन बोलने वाले, सूर्य उदय होने तथा सूर्यास्त के समय सोने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी-स्वास्थ्य, सौंदर्य और शोभा त्याग देती है, भले ही विष्णु क्यों न हो।

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च।
तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते अर्थो हि लोके पुरुषस्य बंधुः।।

अर्थात : जब मनुष्य के पास धन नहीं रहता तो उसके मित्र, स्त्री, नौकर-चाकर और भाई-बंधु सब उसे छोडकर चले जाते हैं। यदि उसके पास फिर से धन-संपत्ति आ जाए तो वे फिर उसका आश्रय ले लेते हैं। संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है।

आचार्य ने धन के व्यावहारिक पक्ष को बताते हुए कहा है कि इसी के इर्द-गिर्द सारे संबंधों का ताना-बाना हुआ करता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं!

तद्भोजनं यद् द्विजभुक्तशेषं तत्सौहृदं यत्क्रियते परस्मिन्।
सा प्राज्ञता या न करोति पापं दम्भं विना यः क्रियते स धर्मः।।

अर्थात : वास्तविक भोजन वह है जो ब्राह्मण आदि को खिला देने के बाद बचता है, अर्थात गृहस्थ को चाहिए कि वह स्वयं भोजन करने से पहले ब्राह्मण को भोजन कराए, इसी प्रकार प्रेम और स्नेह उसे ही कहा जा सकता है जो परायों से किया जाता है, अपने बन्धु-बान्धवों से तो सभी प्रेम करते हैं। बुद्धिमत्ता यह है कि मनुष्य पाप कर्म करने से बचा रहे। धर्म वह है जिसमें छल-कपट न हो।

अपनों से किया जाने वाला प्रेम पूर्णतया व्यावहारिक होता है। इसीलिए वह ढोया जाता है। जबकि पराये जिससे अपने बन जाएं और बने भी रहें, वही सही अर्थों में प्रेम है।

मणिर्लुण्ठति पादाने काचः शिरसि धार्यते।
क्रयविक्रयवेलायां काचः काचो मणिमणिः।।

अर्थात : किसी विशेष स्थिति में रत्न चाहे पैरों में लुढ़कता रहे और कांच को सिर पर धारण किया जाए, परंतु जब बेचने अथवा लेने का समय आता है तो कांच को कांच और रत्न को रत्न ही कहा जाता है।

इसका भाव यह है कि किसी अयोग्य वस्तु अथवा व्यक्ति को उचित स्थान पर रखने अथवा नियुक्त करने से उसके मूल्य में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता, परंतु जब मूल्यांकन का समय आता है तो उनकी वास्तविक स्थिति का पता लग ही जाता है।

दूरागतं पथि श्रान्तं वृथा च गृहमागतम्।
अनर्चयित्वा यो भुंक्ते स वै चाण्डाल उच्यते।।

अर्थात : दूर से चलकर आने वाला यात्री थका हुआ होता है, बिना किसी स्वार्थ के घर में आए हुए अतिथि की पूजा किए बिना जो घर का स्वामी स्वयं भोजन कर लेता है, उसे निश्चय ही चाण्डाल कहा जाता है।

वेद आज्ञा देते हैं कि अतिथि देवता है – अतिथि देवो भव! गृहस्थ को चाहिए कि दूर से चलकर आने वाले अतिथि का वह आदर-सत्कार करे। अतिथि की उपेक्षा करना पाप कर्म है। शास्त्रों में अतिथि की सेवा का विधान है। अतिथि सेवा द्वारा अनजाने व्यक्ति को भी सज्जन सम्मान और श्रद्धा का पात्र बना लेते हैं।

बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुदृढबन्धनमन्यत्।
दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रिनिष्क्रियो भवति पंकजकोशे।।

अर्थात : इस संसार में बहुत से बंधन हैं, परंतु प्रेमरूपी रस्सी का बंधन कुछ विचित्र होता है। लकड़ी को छेदने की शक्ति रखने वाला भौंरा भी कमल के फूल में बंद होकर निष्क्रिय हो जाता है। कमल की पंखुड़ियों को काटने की उसमें शक्ति होती है, परंतु उनके प्रति अतिरेक प्रेम- भावना होने के कारण वह ऐसा नहीं करता।

संसार में मनुष्य अनेक प्रकार के बंधनों में बंधा हुआ है, परंतु सबसे मजबूत बंधन प्रेम का होता है, जिस प्रकार कमल की कोमल पंखुड़ियों में बंद हो जाने पर भौंरा प्रेमवश उन्हें काट नहीं पाता, इसी प्रकार मनुष्य प्रेम के पाश में बंधा हुआ सब कष्ट उठाने के लिए तैयार हो जाता है अर्थात वह प्रेम के बंधन से मुक्त नहीं हो पाता।

छिन्नोऽपि चन्दनतरुन जहाति गन्धं वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः।।

अर्थात : चंदन का वृक्ष कट जाने पर भी अपनी सुगंध नहीं छोड़ता, बूढ़ा हो जाने पर भी हाथी अपनी क्रीड़ाएं नहीं छोड़ता, कोल्हू पर पेर (पेल) दिए जाने के बाद भी ईख अपनी मिठास को नहीं छोड़ता, इसी प्रकार कुलीन मनुष्य निर्धन हो जाने पर भी अपनी शालीनता को नहीं छोड़ता।

स्वभाव किसी भी परिस्थिति में बदलता नहीं है। इससे पूर्व भी कई स्थानों पर आचार्य ने दुष्टों की चर्चा की है।

स्वभाव पर जोर देने का आचार्य का तात्पर्य व्यवहार की दिशा को निर्धारित करना है। इसी आधार पर विश्वास की सीमा का निर्धारण भी किया जा सकता है। स्वभाव में यदि सज्जनता है, तो विश्वास की संभावना का प्रतिशत बढ़ जाता है। आचार्य ने अपने जीवन में भी इस मनोविज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग किया है। धर्मनंद के विश्वस्त और मगध के निष्ठावान प्रधान अमात्य राक्षस को चंद्रगुप्त का अमात्य बनाना इसी उपरोक्त कथन का सशक्त उदाहरण है।
‘कुलीन’ शब्द का प्रयोग कर आचार्य ने वंश-परंपरा की ओर भी संकेत किया। परंपरा या प्राप्त होने वाले संस्कारों का जीवन में अत्यधिक महत्व है। पारिवारिक पृष्ठभूमि व्यक्तित्व का अत्यधिक सशक्त रूप से निर्धारण करती है।

@ सौरव ज्ञाना
Motivational Speaker & GS TEACHER

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